बाबा ! को ऐसा जन जोगी ।
अंजन छाड़े रहे निरंजन , सहज सदा रस भोगी ॥ टेक ॥
छाया माया रहै विवर्जित , पिंड ब्रह्मण्ड नियारे ।
चंद सूर तैं अगम अगोचर , सो गह तत्व विचारे ॥ १ ॥
पाप पुन्य लिपै नहिं कबहूँ , द्वै पख रहिता सोई ।
धरणि आकाश ताहि तैं ऊपरि , तहां जाइ रत होई ॥ २ ॥
जीवन मरण न बाँछे कबहूँ , आवागमन न फेरा ।
पानी पवन परस नहिं लागे , तिहिँ संग करै बसेरा ॥ ३ ॥
गुण आकार जहां गम नाँहीं , आपैं आप अकेला ।
दादू जाइ तहां जन जोगी , परम पुरुष सौं मेला ॥ ४ ॥
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