!! तजौ मन , हरि बिमुखनि कौ संग !!
जिनकै संग कुमति उपजति है , परत भजन में भंग ।
कहा होत पय पान कराएं , बिष नही तजत भुजंग ।
कागहिं कहा कपूर चुगाएं , स्वान न्हवाएं गंग ।
खर कौ कहा अरगजा-लेपन , मरकट भूषण अंग ।
गज कौं कहा सरित अन्हवाएं , बहुरि धरै वह ढंग ।
पाहन पतित बान नहिं बेधत , रीतौ करत निषंग ।
सूरदास कारी कमरि पै , चढत न दूजौ रंग ।
- भजन का भावार्थ -
तजौ मन हरि बिमुखन को संग । ,..." इस भजन में बताया गया है कि - " संत श्री सूरदास जी महाराज कहते हैं कि है मन ! ऐसे लोगों का ऐसे व्यक्तियों का संग त्याग दो जो आपको प्रभु से दूर करते हैं , जिनके साथ रहने से कुमति उपजती है और भजन में भंग पड़ता है उनका संग त्याग देना चाहिए ! हे मेरे मन ! जो जीव हरि भक्ति से विमुख हैं , उन प्राणियों का संग न कर । उनकी संगति के माध्यम से तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि वे तेरी भक्ति में रुकावट पैदा करते हैं , उनके संग से क्या लाभ ?
आप चाहे कितना ही साँप को दूध पिला दो , वो ज़हर बनाना बंद नहीं करेगा एवं आप चाहे कितना ही कपूर कौवे को खिला दो वह सफ़ेद नहीं होगा , कुत्ता कितना ही गंगा में नहा ले वह गन्दगी में रहना नहीं छोड़ता ।
आप एक गधे को कितना ही चन्दन का लेप लगा लो वह मिट्टी में बैठना नहीं छोड़ता , मरकट (बन्दर) को कितने ही महंगे आभूषण मिल जाए वह उनको तोड़ देगा । एक हाथी द्वारा नदी में स्नान करने के बाद भी वह रेत खुद पर छिड़कता है ।
भले ही आप अपने पूरे तरकश के तीर किसी चट्टान पर चला दें , चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । श्री सूरदास जी कहते हैं कि "एक काले कंबल दूसरे रंग में रंगा नहीं जा सकता (अर्थात् जिस जीव ने ठान ही लिया है कि उसे कुसंग ही करना है तो उसे कोई नहीं बदल सकता इसलिए संत श्री सूरदास जी महाराज कहते हैं ऐसे विषयी लोगों का संग त्यागना ही उचित है और भगवान के भजन में लग जाना ही जीवन की सार्थकता है )। "
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tajo man hari vimukhan ko sang
तजौ मन , हरि बिमुखनि कौ संग
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